श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय

श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय
वैष्णव चतुः सम्प्रदाय में श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय अत्यन्त  प्राचीन  अनादि वैदिक सत्सम्प्रदाय है । इस सम्प्रदाय के आद्याचार्य श्रीसुदर्शनचक्रावतार जगद्गुरु  श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य है । इस सम्प्रदाय की परम्परा  श्रीहंस भगवान से प्रारम्भ होती है । श्रीहंस भगवान ने प्रकट होकर श्री सनकादि महर्षियों की जिज्ञासा पूर्ति कर उन्हें श्रीगोपाल तापिनी उपनिषद के  परम दिव्य पंचपदी विद्यात्मक श्रीगोपाल मन्त्रराज का गूढतम उपदेश तथा अपने निज स्वरुप सूक्ष्म दक्षिणावर्ती चक्राङ्कित शालिग्राम अर्चा विग्रह प्रदान किये जो श्रीसर्वेश्वर के नाम से  व्यवहृत हैं । इसी मन्त्र का उपदेश तथा श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा श्री सनकादिकों ने देवर्षिप्रवर श्रीनारदजी को प्रदान की ।  निखिलभुवनमोहन सर्वनियन्ता श्रीसर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण  की मंगलमयी पावन आज्ञा शिरोधार्य कर चक्रराज श्रीसुदर्शन ने द्वापर अंत में  इस धराधाम पर भारतवर्ष के दक्षिण में महर्षिवर्य श्रीअरूण के पवित्र आश्रम में माता जयन्तीदेवी  के उदर से श्रीनियमानन्द के रूप में अवतार धारण किया ।

अल्पवय में ही माता जयन्ती तथा पिता  महर्षि  अरूण के साथ उत्तर भारत में व्रजमण्डल स्थित गिरिराज गोवर्धन की सुरम्य उपत्यका तलहटी में निवास कर श्रुति-स्मृति-सूत्रादि विविध विद्याओं का सांगोपांग विधिवत अध्ययन किया । पितामह ब्रह्मा जी एक दिवाभोजी यति के रूप में सूर्यास्त के समय आपके आश्रम पर उपस्थित हुए । विविध शास्त्रीय चर्चाओं  के अनन्तर जब श्रीनियमानन्द प्रभु ने यति से भगवत प्रसाद लेने का आग्रह किया तो यति ने सूर्यास्त का संकेत करते हुए अपने दिवभोजी होने का संकल्प स्मरण कराया । समागत अतिथि के अभुक्त ही चले जाने से शास्त्र आज्ञा की हानि होते देख श्रीनियमानन्द ने अपने सुदर्शन-चक्र स्वरुप के तेज को समीपस्थ निम्बवृक्ष पर स्थापित कर दिवभोजी यति को सूर्य रूप में दर्शन कराकर भगवदप्रसाद पवाया । यति ने ज्योंही आचमन किया तो भान हुआ की एक प्रहार रात्रि व्यतीत हो चुकी हैं । इस महान विस्मयकारिणी घटना को देखकर ब्रह्माजी ने वास्तविक रूप   में प्रकट होकर श्रीनियमानन्द को स्वयं द्वारा  परीक्षा लिया जाना बतलाकर निम्ब वृक्ष पर अर्क (सूर्य) के दर्शन कराने के  कारण श्रीनिम्बार्क  नाम से सम्बोधित किया । और भविष्य में इसी नाम से विख्यात होने की घोषणा की ।  तबसे श्रीनियमानन्द प्रभु  का नाम  श्रीनिम्बार्क प्रसिद्द हुआ । इसी आश्रम में  आपको देवर्षिप्रवर  श्रीनारदजी से वैष्णवी दीक्षा में वही पंचपदी विद्यात्मक    श्रीगोपालमन्त्रराज  का पावन उपदेश  तथा श्रीसनकादि संसेवित श्रीसर्वेश्वर प्रभु  की अनुपम सेवा प्राप्त हुई । श्रीनारद जी ने श्रीनिम्बार्क को श्रीराधाकृष्ण की युगल  उपासना एवं स्वाभाविक  द्वैताद्वैत सिद्धांत का परिज्ञान कराया और स्वयं-पाकिता एवं अखंड नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रतादि नियमों का विधिपूर्वक उपदेश किया ।   यही मंत्रोपदेश-सिद्धांत, श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा  तथा स्वयं-पकिता का नियम और नैष्ठिक ब्रह्मचर्य के पालन पूर्वक आचार्य परम्परा अद्यावधि चली आ रही है । आपने प्रस्थानत्रयी पर भाष्य रचना कर स्वाभाविक द्वैताद्वैत नामक सिद्धान्त का प्रतिष्ठापन किया । वृन्दावननिकुंजविहारी युगलकिशोर भगवान् श्रीराधाकृष्ण की श्रुति-पुराणादि शास्त्रसम्मत  रसमयी मधुर युगल उपासना का आपने सूत्रपात कर इसका प्रचुर प्रसार  किया । कपालवेध स़िद्धान्तानुसार विद्धा एकादाशी त्याज्य एवं शुद्धा एकादाशी ही ग्राह्य  है भगवद्द्जयन्ती आदि  व्रतोपवास के सन्दर्भ में यही आपश्री का अभिमत सुप्रसिद्ध है । सम्प्रदाय के आद्य-प्रवर्तक आप ही लोक विश्रुत हैं । आपका प्रमुख  केन्द्र व्रज में श्रीगोवर्धन के समीप निम्बग्राम रहा है । श्रीनिम्बार्क भगवान् के पट्टशिष्य  पांचजन्य शंखावतार श्री श्रीनिवासाचार्यजी महाराज ने श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य कृत वेदान्त पारिजातसौरभाख्य  ब्रह्मसूत्र भाष्य पर वेदान्त कौस्तुभ भाष्य की वृहद्  रचना की । श्रीनिम्बार्क भगवान् द्वारा विरचित वेदान्त कामधेनु दशश्लोकि  पर आचार्यवर्य श्रीपुर्षोत्तमाचार्य जी  महाराज ने वेदान्तरत्नमंजूषा नामक वृहद भाष्य को रचा जो परम मननीय है । सोलहवें आचार्य श्री  श्रीदेवाचार्यजी से इस सम्प्रदाय में दो शाखाए चलती है – एक श्रीसुन्दरभट्‌टाचार्यजी की जिन्होंने आचार्यपद  अलंकृत किया  और दूसरी श्रीव्रजभूषणदेवजी की जिनकी परम्परा में गीतगोविन्दकार  श्रीजयदेव जी तथा महान रसिकाचार्य स्वामी श्रीहरिदास जी महाराज प्रकट  हुए ।   पूर्वाचार्य परम्परा में जगद्विजयी श्रीकेशवकाशमीरीभट्‌टाचार्यजी महाराज ने वेदान्त  कौस्तुभ भाष्य पर  कौस्तुभ-प्रभा   नामक विस्तृत व्याख्या का प्रणयन किया । श्रीमद्भगवद्गीता पर भी आप द्वारा रचित तत्व-प्रकाशिका  नामक व्याख्या भी पठनीय है । इसी प्रकार आपका क्रमदीपिका तन्त्र ग्रन्थ अति प्रसिद्ध है । आपने मथुरा के विश्राम घाट पर तान्त्रिक यवन काजी द्वारा लगाये गये यन्त्र को अपने तंत्र-बल  से विफल कर हिन्दू संस्कृति एवं वैदिक सनातन वैष्णव धर्म की रक्षा की । आपके परम प्रख्यात प्रमुख  शिष्य रसिकाचार्य श्री श्रीभट्टदेवाचार्य जी महाराज ने व्रजभाषा में सर्वप्रथम श्रीयुगलशतक की रचना कर व्रजभाषा का उत्कर्ष बढाया । आपकी यह सुप्रसिद्ध रचना व्रजभाषा की आदिवाणी नाम से लोक विख्यात है । आपके ही पट्टशिष्य जगद्गुरु निम्बार्काचार्य पीठाधीवर रसिकराजराजेवर  श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजी महाराज ने व्रजभाषा में ही श्रीमहावाणी की रचना कर जिस दिव्य  निकुंज युगल मधुर रस को प्रवाहित किया वह व्रज-वृन्दावन के रसिकजनों का सर्व  शिरोमणि देदीप्यमान कण्ठहार के रूप में अतिशय सुशोभित है । आपश्री  ने जम्बू में  जीव बलि लेने  वाली देवी को वैष्णवी दीक्षा देकर उसे प्राणियों की बलि से मुक्त कर सात्विक वैष्णवी रूप प्रदान  किया । आपने श्रीनिम्बार्क भगवान् कृत वेदान्त कामधेनु दशश्लोकि  पर सिद्धान्त रत्नांजलि नाम से दिव्य विस्तृत व्याख्या की रचना कर वैष्णवजनों पर अनुपम कृपा की है।

श्रीहरिव्यासदवाचार्यजी महाराज के द्वादश प्रमुख  शिष्य हुए जिनके नाम से बारह द्वारा-गादी स्थापित हुई ।  जिनमें से श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी महाराज को उत्तरधिकार में  श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा प्राप्त  होने से प्राचीन परम्परानुसार श्रीनिम्बार्काचार्य पद प्राप्त  हुआ तथा अन्य ग्यारह शिष्य  द्वाराचार्य कहलाये ।  इन द्वादश  द्वाराचार्यों तथा स्वामी श्रीहरिदास जी  की शिष्य परम्परा  से विशाल श्रीनिम्बार्क  संप्रदाय का संगठन हैं ।

इस निम्बार्क संप्रदाय के सम्पूर्ण भारत वर्ष में असंख्य मठ-मन्दिर-आश्रम एवं विभिन्न संस्थाएं हैं जो विरक्त अथवा गृहस्थ परम्परा से परिचालित हो अपने अपने स्थानों के सभी व्यवहारों में सम्पूर्ण रूपेण स्वतंत्र हैं। ये सभी स्थान तथा इनकी शिष्य परम्परा के सभी विरक्त/गृहस्थ निम्बार्कीय वैष्णव एक मत से अपना एकमात्र आचार्य  श्रीहरिव्यासदेवाचार्य जी के पट्टशिष्य स्वामी श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी की गद्दी पर विराजमान होने वाले उत्तराधिकारी को ही मानते हैं।  क्योंकि परम्परागत रूप से श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा इसी पीठ में विद्यमान हैं तथा श्रीसर्वेश्वर प्रभु जिन्हे परम्परागत परम्परा से प्राप्त होतें हैं वही जगद्गुरु श्रीनिम्बार्क पीठाधीश्वर कहलाते हैं। यह परम्परा सम्पूर्ण निम्बार्क वैष्णव और चतुःवैष्णव संप्रदाय तथा षड्दर्शन से मान्य व प्रमाणित हैं। सम्पूर्ण भारतवर्ष की भक्तप्राण जनता  समस्त राजा-महाराजा प्राचीनकाल से इस परम्परा को मानकर अपनी अनन्य निष्ठा प्रकट करते  आये हैं।
आचार्य पीठ परम्परा में अब तक 48 आचार्य हुये है, जो निम्नप्रकार से है:-

 आचार्यश्री नाम ​​माह​ पक्ष ​तिथि
1श्री हंस भगवान्‌  कार्तिकशुक्ल नवमी
2श्री सनकादिक भगवान्‌कार्तिकशुक्ल नवमी
3श्री नारद भगवान्‌मार्गशीर्षशुक्ल द्वादशी
4श्री निम्बार्काचार्य जीकार्तिकशुक्ल पूर्णिमा 
5श्री श्रीनिवासाचार्य जीमाघ शुक्ल पञ्चमी 
6श्री विश्वाचार्य जीफाल्गुन शुक्ल चतुर्थी 
7श्री पुरुषोत्तमाचार्यजीचैत्र शुक्ल षष्ठी 
8श्री विलासाचार्य जीवैशाख शुक्ल अष्टमी 
9श्री स्वरूपाचार्य जीज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी 
10श्री माधवाचार्य जीआषाढ़ शुक्ल दशमी 
11श्री बलभद्राचार्य जीश्रावण शुक्ल तृतीया 
12श्री पद्माचार्य जीभाद्रपद शुक्ल द्वादशी 
13श्री श्यामाचार्य जीआश्विन शुक्ल त्रयोदशी 
14श्री गोपालाचार्य जीभाद्रपद शुक्ल एकादशी 
15श्री कृपाचार्य जीमार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा 
16श्री देवाचार्य जीमाघ शुक्ल पञ्चमी 
17श्री सुन्दर भट्‌टाचार्य जीमार्गशीर्षशुक्ल द्वितीया
18श्री पद्मनाभ भट्‌टाचार्य जीवैशाख कृष्ण तृतीया 
19श्री उपेन्द्र भट्‌टाचार्य जीचैत्र कृष्ण तृतीया 
20श्री रामचन्द्र भट्‌टाचार्य जीवैशाख कृष्ण पञ्चमी 
21श्री वामन भट्‌टाचार्य जीज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी 
22श्री कृष्ण भट्‌टाचार्य जीआषाढ़ कृष्ण नवमी
23श्री पद्माकर भट्‌टाचार्य जीआषाढ़ कृष्ण अष्टमी 
24श्री श्रवण भट्‌टाचार्य जीकार्तिककृष्ण नवमी
25श्री भूरि भट्‌टाचार्य जीआश्विन कृष्ण दशमी 
26श्री माधव भट्‌टाचार्य जीकार्तिककृष्ण एकादशी 
27श्री श्याम भट्‌टाचार्य जीचैत्र कृष्ण द्वादशी 
28श्री गोपाल भट्‌टाचार्य जीपौषकृष्ण एकादशी 
29श्री बलभद्र भट्‌टाचार्य जीमाघ कृष्ण चतुर्दशी 
30श्री गोपी नाथ भट्‌टाचार्य जीश्रावण शुक्ल सप्तमी 
31श्री केशव भट्‌टाचार्य जीचैत्र शुक्ल प्रतिपदा 
32श्री गांगल भट्‌टाचार्य जीचैत्र कृष्ण द्वितीया 
33श्री केशव काशमीरी भट्‌टाचार्यज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी 
34श्री श्रीभट्‌ट देवाचार्य जीआश्विन शुक्ल द्वितीया 
35श्री हरिव्यास देवाचार्यजीकार्तिककृष्ण द्वादशी 
36श्री परशुराम देवाचार्य जीभाद्रपद कृष्ण पञ्चमी 
37श्री हरिवंश देवाचार्य जीमार्गशीर्षकृष्ण सप्तमी 
38श्री नारायण देवाचार्य जीपौषशुक्ल नवमी 
39श्री वृन्दावन देवाचार्य जीभाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी 
40श्री गोविन्द देवाचार्य जीकार्तिककृष्ण पञ्चमी 
41श्री गोविन्द शरण देवाचार्य जीकार्तिककृष्ण अष्टमी 
42श्री सर्वेश्वर शरण देवाचार्य जीपौषकृष्ण षष्ठी 
43श्री निम्बार्क शरण देवाचार्य जी   ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी 
44श्री ब्रजराज शरण देवाचार्य जीज्येष्ठ शुक्ल पञ्चमी 
45श्री गोपीश्वर शरण देवाचार्य जीमाघ कृष्ण दशमी 
46श्री घनश्याम शरण देवाचार्य जीआश्विन कृष्ण षष्ठी 
47श्री बालकृष्ण शरण देवाचार्य जी चैत्र कृष्ण द्वादशी 
48श्री राधासर्वेश्वर शरण देवाचार्य जीज्येष्ठ शुक्ल द्वितीया 

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