निम्बार्कीय दीक्षा-स्वरूप :-
दीक्षा से दिव्य भाव की प्राप्ति होती है। दीक्षा से समस्त पापों का क्षय हो जाता है। अतएव इसे दीक्षा कहते हैं। दीक्षा का प्रभाव दीक्षा के बाद ही छलहीन दीक्षित को स्वयं प्रतीत होता है। एक अनिर्वचनीय अन्तस्तोष होता है, दीक्षा से। अवय ही सभी सम्प्रदायों में ही दीक्षा का आाय उज्ज्वल होता है। परन्तु वैष्णवी दीक्षा का जितना ॅंचा आर्दा, उदात्त भाव, ईवर के प्रति आत्म:समर्पण की ॅंची भावना एवं गुरु के प्रति निष्ठा का भाव होता है, वैसा अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता।
दीक्षा के लिए सर्वप्रथम ाष्य में तीव्र भावना वैराग्य का उदय होना आवयक है। संसार को दु:खालय समझकर प्रथम इससे विरक्ति होनी चाहिए। कारण ‘ये हि संर्स्पाजा: भोगा दु:खयोनय एव ते।‘ अतएव भगवान् ने जागतिक सुख को ‘अनित्यमसुखं लोक‘ कहा है। गीता की भाषा में संसार का नाम ही दु:खालय है। यहॉं की वस्तुओं में केवल सुख की भॉंति है। सुख रूप तो एकमात्र भगवान् हैं। क्योंकि वे नित्य प्रिय हैं, प्राणीमात्र के परम श्रेष्ठ हैं। संसार के पति-पुत्रादि आर्तिद हैं, अतएव दु:ख रूप हैं। अत: कुाल व्यक्ति एकामात्र भगवान् में ही रति करते हैं! जगत् का सुख क्षणिक है, सातािय है, भगवत् सुख शावत है, निरतािय है। क्योंकि भगवान् ‘यचो वाचो निवर्तन्ते‘ है। संसार का सुख अल्प है, अतएव मर्त्य है। भगवत् सुख भूमा है, अतएव सनातन है। यहॉं के समस्त सम्बन्ध विनवर है। यहॉं के माता-पिता स्त्री-पुत्रादि क्षणिक है। अत: एक दिन इनका वियोग निचित है। इस जगत् में सहस्रों हर्ष के तथा सैकड़ों शोक के स्थान होते हैं, परन्तु ये मूढ़ व्यक्ति को ही प्रभावित करते हैं, पण्डित को नहीं इन बातों को सोचकर भगवत् प्राप्ति की लालसा से प्रथम सद्गुरु की शरण में जाये। ‘स गुरुमेवाभिगच्छेत्।‘ गुरु का स्वरूप शास्त्रों एवं पूर्वाचार्यों के अनुसार दिखाया हैं। श्रीगुरु के शरण में जाकर उनसे प्रार्थना करें-प्रभो! मैं संसाररूप दावाग्नि से जल रहा हूॅं। कालरूप व्याल ने मुझे डस लिया है। गुरुदेव ! मैं आपकी शरण में हूॅं मेरा उद्धार कीजिये। इसके बाद यदि गुरु उसे अंगीकार करना चाहें तो कम से कम एक वर्ष तक उसकी परीक्षा लें। कारण ‘नासम्वत्सरवासिने‘ यह श्रुति की आज्ञा है। जिसका चारित्र्य परीक्षित नहीं है, उसे कभी भी विद्या का दान नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैसे सोने की शुद्धता तपाने या घषर्ण से होती है, उसी प्रकार ाष्य को भी कुल शील आदि के द्वारा परीक्षा लेकर ही दीक्षा देनी चाहिए, ऐसी शास्त्राज्ञा है। जैसा कि आचार्यपाद श्रीसुन्दरभट्ट ने कहा है-जाति, गुण, स्वभाव आदिद के द्वारा अधिकारी-वाेिष के धर्मों, अपने प्रति श्रद्धा, विवास तथा प्रीति के द्वारा वर्षभर, छह मास, दो मास या एक मास परीक्षा लेकर उसके अधिकार का निर्णय करके उस गुरुपरायण ाष्य को ब्रविद्या का उपदो दें।
‘अधिकार का निर्णय‘ दीक्षा में परम आवयक वस्तु है। जो जिस भाव का अधिकारी हो उसे उसी भाव की दीक्षा देनी चाहिए। यदि किसी श्रृंगार की ओर आकर्षण नहीं है, बल्कि उस ओर असम्भावना विपरीत हो तो ऐसे ाष्य को कथापि माधुर्य भाव का उपदो नहीं देना चाहिए। सम्प्रदाय में इस बात का बड़ा कड़ा आदो है। पर आज ऐसा नहीं दिखयी देता। श्रृंगार उपासना में लाखों में कोई अधिकरी होता है। जिस पर श्रीजी की कृपा हो जाय, वही मधुर भाव का अधिकरी होता है। जिसका जन्मान्तर का संस्कार होता है, ऐसा दय पहचान कर ही उज्ज्वल भाव की दीक्षा का उपदो देना चाहिए। श्रीगोपाल मन्त्र में सब भाव है। व्यापक दृष्टिकोण है। यद्यपि प्रधानता माधुर्य की ही हैं। श्रृंगार रस इसके बीच में ओतप्रोत है। निकुंजरस ही ‘क्लीं‘ बीज का ध्येय है। नित्यविहार ही बीजराज का परम लक्ष्य है श्रीगोपीजनवल्लभ रूप में श्रीकृष्ण का चिन्तन है। कामगायत्री तथा काममाला में साक्षान्मन्मथ रूप में ‘रसो वै स:‘ का चिन्तन है फिर भी आचार्यपाद ने सोच-समझकर व्यापक दृष्टि से इसकी व्याख्या की है। श्रीगोपीजनवल्लभ पद से गुरु का अर्थ लेकर आचार्यपाद ने अपने हार्दभाव को गुप्त रखा है। वैसे गोपीजनवल्लभ का शब्दार्थ जगत् प्रसिद्ध है। वस्तुत: यह वस्तु नितरां गोपनीय है। शास्त्र में इसे अत्यन्त गोपनीय रखने का आदो है। क्योंकि ‘गुप्तो हि रस: रसतामेति‘ यही सिद्धान्त है। यही कारण है कि श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में इस भाव को आचार्य श्रीकोवकामीरिभट्टाचार्य तक गुप्त रख्ने की ही प्रथा थी। इनसे पूर्व के आचार्यों ने बड़ी बुद्धिमानी से अपने भावों को गुप्त रखा है। चाहें मन्त्रों की व्याख्या हो या प्रपत्ति की, उनके माधुर्य का पता लगाना आपको कठिन होगा। यही तो खूबी है, वैाष्ट्य है।
हॉं, तो अधिकारी तन्त्र का विनिचय तो होना ही चाहिए और योग्य अधिकारी प्राप्त होने पर उसे भगवत्सम्बन्ध कराना ही चाहिए। वैष्णवी दीक्षा में मुख्य विषय भगवत्सम्बन्ध ही है। इसकी प्रक्रिया बड़ी आकर्षक है। सर्वप्रथम ाष्य गुरु की शरण में जाकर दण्डवत् प्रणिपात कर उनसे प्रार्थना करें कि प्रभो मैं त्रिविध तापों से तप्त हूॅं। उनसे भयभीत होकर छुटकारा पाने की इच्छा से जैसे दावाग्नि पीड़ित व्यक्ति गंगोदक की शरण में आता है, उसी तरह मैं आपका शरणागत हुआ हूॅं। गुरोंं ! मैं आपका भृत्य हूूॅं, स्वामी रूप मैं आपका वरण करता हूॅं। मैं सर्वसाधन शून्य हूॅं। सर्वथा अंकिंचन हूॅं। मैं पापों से भरा हूॅं। मेरी दूसरी कोई गति नहीं है। मुझे केवल अपनी अहैतुकी करुणा से सर्वात्म भाव से स्वीकार कीजिये। मैंने आपके प्रति अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया है। दयालो, सब प्रकार से आप मेरा रक्षक बनकर मुझे अनुग्रहीत करने की कृपा करें। इस प्रकार प्रार्थना करे। इसके बाद अकारण करुणालय श्रीगुरुदेव उसकी आर्तवाणी सुनकर उसे अपने समीप बैठाकर उसके हाथ को अपने चरणों में रखवाकर कहें कि यदि तुम संसार से भयभीत हो, मेरी शरणागत हो, तो मैं तुम्हें आत्मसात् करता हूॅं। तेरा रक्षक होता हूॅं, तू भय मत कर। इसके बाद उसके मस्तक आदि द्वादा अंगों में ‘कोवाय नम:‘ आदि द्वादा मन्त्रों से अपने हाथ से तिलक करे और बाद में मन्त्रों द्वारा उसकी भुजा पर शंख चक्र आदि अंकित कर दे। उसके पचात् उसका नामकरण संस्कार करें। नाम ऐसा हो जिससे भगवत्परक पोषित हो। पश्चात् उसे आचार्य परम्परा का उपदो दे। तत्पचात् ाष्य का स्वराज्यभिषेक करे, तो निम्बार्कीय दीक्षा की सर्वोत्तम विधि है। इसमें श्रीगुरुदेव ाष्य से कहते हैं कि मेरा अंक ही तेरा सिंहासन हैं। मेरा दाहिना हाथ ही तेरा छत्र है। मेरा बॉंया हाथ की तेरा चामर है। मेरे द्वारा दी गई सपरिकर विद्या मन्त्रराज ही तेरी सेना है। भगवद्भावापत्ति ही तेरी जयश्री है। कामादि की निवृत्ति पूर्वक प्रकृति के सम्बन्ध का ध्वंस ही तेरी दिग्विज है। इस प्रकार ाष्य को आशीर्वाद देकर ‘ाष्य पुत्र महाभाग‘ आदि पाठ करके शान्ति मन्त्रों के उच्चारण पूर्वक ाष्य के दाहिने कान में ब्रविद्या श्रीगोपालमन्त्र देकर आचार्य प्रोक्त श्रीमन्त्ररहस्य षोडाी सुनादे। उसके बाद मुमुक्षु ाष्य उन्हें साष्टांग दण्डवत् करें। तत्पचात् गुरुदेव उसे भगवत्-चरणों में अर्पित कर उसे सदा के लिए भगवदीय बनादें। फिर उसे अपना चरणोदक एवं प्रसाद देकर आलिंगन करके ाष्य को कहें कि मैंने तुझे सर्वभाव से आत्मसात् कर लिया है। अब तू सब प्रकार से मेरी सेवा करना फिर हॉं महाराज ! ऐसा ही करूॅंगा इस प्रकार ाष्य से तीन बार उच्चारण कराएॅं। इसके बाद उसे भगवत्सम्बन्धी उपदो दें। तत्पचात् उसे सेवा के लिए चित्रपट या भगवान् की किसी प्रकार की मूर्ति विधिपूर्वक पूजा करके उसके ार पर रख दें और उसे आज्ञा दें कि यही भगवान् तुम्हारे स्वामी है। सभी प्रकार के सम्बन्धी हैं, जिनके प्रति तूने अपना सर्वस्व समर्पित किया है। इन सर्वेश्वर प्रभु में आत्मबुद्धि से सर्वविध सम्बन्धों के अनुसार निरतािय प्रीति करके दो, काल तथा अवस्था के अनुसार इनकी सदा सेवा करते रहना, ऐसी आज्ञा देकर भगवद्विग्रह को समर्पित कर दें।
इन निम्बार्कीय दीक्षा की दो सर्वोत्तम वाेिषताएं है। पहला स्वराज्यभिषेक, दूसरा समर्पण वाक्य का महत्वपूर्ण संकल्प। इन्हीं दो वाेिषताओं के द्वारा श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय की उपासना सम्बन्धी भावना जानी जा सकती है। इसमें श्रीव्रजसीमन्तिनियों जैसा सर्वात्मभाव से श्रीकृष्णाराधन करने का विधान है। यह रहस्यमीमांसा का संकेत है। सम्प्रदाय के समस्त रसग्रथों की व्याख्या करते समय इन उदात्त भावों का ध्यान रखना आवयक हैं संक्षेप में यही श्रीनिम्बार्कीय दीक्षा का स्वरूप है।
दीक्षा से दिव्य भाव की प्राप्ति होती है। दीक्षा से समस्त पापों का क्षय हो जाता है। अतएव इसे दीक्षा कहते हैं। दीक्षा का प्रभाव दीक्षा के बाद ही छलहीन दीक्षित को स्वयं प्रतीत होता है। एक अनिर्वचनीय अन्तस्तोष होता है, दीक्षा से। अवय ही सभी सम्प्रदायों में ही दीक्षा का आाय उज्ज्वल होता है। परन्तु वैष्णवी दीक्षा का जितना ॅंचा आर्दा, उदात्त भाव, ईवर के प्रति आत्म:समर्पण की ॅंची भावना एवं गुरु के प्रति निष्ठा का भाव होता है, वैसा अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता।
दीक्षा के लिए सर्वप्रथम ाष्य में तीव्र भावना वैराग्य का उदय होना आवयक है। संसार को दु:खालय समझकर प्रथम इससे विरक्ति होनी चाहिए। कारण ‘ये हि संर्स्पाजा: भोगा दु:खयोनय एव ते।‘ अतएव भगवान् ने जागतिक सुख को ‘अनित्यमसुखं लोक‘ कहा है। गीता की भाषा में संसार का नाम ही दु:खालय है। यहॉं की वस्तुओं में केवल सुख की भॉंति है। सुख रूप तो एकमात्र भगवान् हैं। क्योंकि वे नित्य प्रिय हैं, प्राणीमात्र के परम श्रेष्ठ हैं। संसार के पति-पुत्रादि आर्तिद हैं, अतएव दु:ख रूप हैं। अत: कुाल व्यक्ति एकामात्र भगवान् में ही रति करते हैं! जगत् का सुख क्षणिक है, सातािय है, भगवत् सुख शावत है, निरतािय है। क्योंकि भगवान् ‘यचो वाचो निवर्तन्ते‘ है। संसार का सुख अल्प है, अतएव मर्त्य है। भगवत् सुख भूमा है, अतएव सनातन है। यहॉं के समस्त सम्बन्ध विनवर है। यहॉं के माता-पिता स्त्री-पुत्रादि क्षणिक है। अत: एक दिन इनका वियोग निचित है। इस जगत् में सहस्रों हर्ष के तथा सैकड़ों शोक के स्थान होते हैं, परन्तु ये मूढ़ व्यक्ति को ही प्रभावित करते हैं, पण्डित को नहीं इन बातों को सोचकर भगवत् प्राप्ति की लालसा से प्रथम सद्गुरु की शरण में जाये। ‘स गुरुमेवाभिगच्छेत्।‘ गुरु का स्वरूप शास्त्रों एवं पूर्वाचार्यों के अनुसार दिखाया हैं। श्रीगुरु के शरण में जाकर उनसे प्रार्थना करें-प्रभो! मैं संसाररूप दावाग्नि से जल रहा हूॅं। कालरूप व्याल ने मुझे डस लिया है। गुरुदेव ! मैं आपकी शरण में हूॅं मेरा उद्धार कीजिये। इसके बाद यदि गुरु उसे अंगीकार करना चाहें तो कम से कम एक वर्ष तक उसकी परीक्षा लें। कारण ‘नासम्वत्सरवासिने‘ यह श्रुति की आज्ञा है। जिसका चारित्र्य परीक्षित नहीं है, उसे कभी भी विद्या का दान नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैसे सोने की शुद्धता तपाने या घषर्ण से होती है, उसी प्रकार ाष्य को भी कुल शील आदि के द्वारा परीक्षा लेकर ही दीक्षा देनी चाहिए, ऐसी शास्त्राज्ञा है। जैसा कि आचार्यपाद श्रीसुन्दरभट्ट ने कहा है-जाति, गुण, स्वभाव आदिद के द्वारा अधिकारी-वाेिष के धर्मों, अपने प्रति श्रद्धा, विवास तथा प्रीति के द्वारा वर्षभर, छह मास, दो मास या एक मास परीक्षा लेकर उसके अधिकार का निर्णय करके उस गुरुपरायण ाष्य को ब्रविद्या का उपदो दें।
‘अधिकार का निर्णय‘ दीक्षा में परम आवयक वस्तु है। जो जिस भाव का अधिकारी हो उसे उसी भाव की दीक्षा देनी चाहिए। यदि किसी श्रृंगार की ओर आकर्षण नहीं है, बल्कि उस ओर असम्भावना विपरीत हो तो ऐसे ाष्य को कथापि माधुर्य भाव का उपदो नहीं देना चाहिए। सम्प्रदाय में इस बात का बड़ा कड़ा आदो है। पर आज ऐसा नहीं दिखयी देता। श्रृंगार उपासना में लाखों में कोई अधिकरी होता है। जिस पर श्रीजी की कृपा हो जाय, वही मधुर भाव का अधिकरी होता है। जिसका जन्मान्तर का संस्कार होता है, ऐसा दय पहचान कर ही उज्ज्वल भाव की दीक्षा का उपदो देना चाहिए। श्रीगोपाल मन्त्र में सब भाव है। व्यापक दृष्टिकोण है। यद्यपि प्रधानता माधुर्य की ही हैं। श्रृंगार रस इसके बीच में ओतप्रोत है। निकुंजरस ही ‘क्लीं‘ बीज का ध्येय है। नित्यविहार ही बीजराज का परम लक्ष्य है श्रीगोपीजनवल्लभ रूप में श्रीकृष्ण का चिन्तन है। कामगायत्री तथा काममाला में साक्षान्मन्मथ रूप में ‘रसो वै स:‘ का चिन्तन है फिर भी आचार्यपाद ने सोच-समझकर व्यापक दृष्टि से इसकी व्याख्या की है। श्रीगोपीजनवल्लभ पद से गुरु का अर्थ लेकर आचार्यपाद ने अपने हार्दभाव को गुप्त रखा है। वैसे गोपीजनवल्लभ का शब्दार्थ जगत् प्रसिद्ध है। वस्तुत: यह वस्तु नितरां गोपनीय है। शास्त्र में इसे अत्यन्त गोपनीय रखने का आदो है। क्योंकि ‘गुप्तो हि रस: रसतामेति‘ यही सिद्धान्त है। यही कारण है कि श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में इस भाव को आचार्य श्रीकोवकामीरिभट्टाचार्य तक गुप्त रख्ने की ही प्रथा थी। इनसे पूर्व के आचार्यों ने बड़ी बुद्धिमानी से अपने भावों को गुप्त रखा है। चाहें मन्त्रों की व्याख्या हो या प्रपत्ति की, उनके माधुर्य का पता लगाना आपको कठिन होगा। यही तो खूबी है, वैाष्ट्य है।
हॉं, तो अधिकारी तन्त्र का विनिचय तो होना ही चाहिए और योग्य अधिकारी प्राप्त होने पर उसे भगवत्सम्बन्ध कराना ही चाहिए। वैष्णवी दीक्षा में मुख्य विषय भगवत्सम्बन्ध ही है। इसकी प्रक्रिया बड़ी आकर्षक है। सर्वप्रथम ाष्य गुरु की शरण में जाकर दण्डवत् प्रणिपात कर उनसे प्रार्थना करें कि प्रभो मैं त्रिविध तापों से तप्त हूॅं। उनसे भयभीत होकर छुटकारा पाने की इच्छा से जैसे दावाग्नि पीड़ित व्यक्ति गंगोदक की शरण में आता है, उसी तरह मैं आपका शरणागत हुआ हूॅं। गुरोंं ! मैं आपका भृत्य हूूॅं, स्वामी रूप मैं आपका वरण करता हूॅं। मैं सर्वसाधन शून्य हूॅं। सर्वथा अंकिंचन हूॅं। मैं पापों से भरा हूॅं। मेरी दूसरी कोई गति नहीं है। मुझे केवल अपनी अहैतुकी करुणा से सर्वात्म भाव से स्वीकार कीजिये। मैंने आपके प्रति अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया है। दयालो, सब प्रकार से आप मेरा रक्षक बनकर मुझे अनुग्रहीत करने की कृपा करें। इस प्रकार प्रार्थना करे। इसके बाद अकारण करुणालय श्रीगुरुदेव उसकी आर्तवाणी सुनकर उसे अपने समीप बैठाकर उसके हाथ को अपने चरणों में रखवाकर कहें कि यदि तुम संसार से भयभीत हो, मेरी शरणागत हो, तो मैं तुम्हें आत्मसात् करता हूॅं। तेरा रक्षक होता हूॅं, तू भय मत कर। इसके बाद उसके मस्तक आदि द्वादा अंगों में ‘कोवाय नम:‘ आदि द्वादा मन्त्रों से अपने हाथ से तिलक करे और बाद में मन्त्रों द्वारा उसकी भुजा पर शंख चक्र आदि अंकित कर दे। उसके पचात् उसका नामकरण संस्कार करें। नाम ऐसा हो जिससे भगवत्परक पोषित हो। पश्चात् उसे आचार्य परम्परा का उपदो दे। तत्पचात् ाष्य का स्वराज्यभिषेक करे, तो निम्बार्कीय दीक्षा की सर्वोत्तम विधि है। इसमें श्रीगुरुदेव ाष्य से कहते हैं कि मेरा अंक ही तेरा सिंहासन हैं। मेरा दाहिना हाथ ही तेरा छत्र है। मेरा बॉंया हाथ की तेरा चामर है। मेरे द्वारा दी गई सपरिकर विद्या मन्त्रराज ही तेरी सेना है। भगवद्भावापत्ति ही तेरी जयश्री है। कामादि की निवृत्ति पूर्वक प्रकृति के सम्बन्ध का ध्वंस ही तेरी दिग्विज है। इस प्रकार ाष्य को आशीर्वाद देकर ‘ाष्य पुत्र महाभाग‘ आदि पाठ करके शान्ति मन्त्रों के उच्चारण पूर्वक ाष्य के दाहिने कान में ब्रविद्या श्रीगोपालमन्त्र देकर आचार्य प्रोक्त श्रीमन्त्ररहस्य षोडाी सुनादे। उसके बाद मुमुक्षु ाष्य उन्हें साष्टांग दण्डवत् करें। तत्पचात् गुरुदेव उसे भगवत्-चरणों में अर्पित कर उसे सदा के लिए भगवदीय बनादें। फिर उसे अपना चरणोदक एवं प्रसाद देकर आलिंगन करके ाष्य को कहें कि मैंने तुझे सर्वभाव से आत्मसात् कर लिया है। अब तू सब प्रकार से मेरी सेवा करना फिर हॉं महाराज ! ऐसा ही करूॅंगा इस प्रकार ाष्य से तीन बार उच्चारण कराएॅं। इसके बाद उसे भगवत्सम्बन्धी उपदो दें। तत्पचात् उसे सेवा के लिए चित्रपट या भगवान् की किसी प्रकार की मूर्ति विधिपूर्वक पूजा करके उसके ार पर रख दें और उसे आज्ञा दें कि यही भगवान् तुम्हारे स्वामी है। सभी प्रकार के सम्बन्धी हैं, जिनके प्रति तूने अपना सर्वस्व समर्पित किया है। इन सर्वेश्वर प्रभु में आत्मबुद्धि से सर्वविध सम्बन्धों के अनुसार निरतािय प्रीति करके दो, काल तथा अवस्था के अनुसार इनकी सदा सेवा करते रहना, ऐसी आज्ञा देकर भगवद्विग्रह को समर्पित कर दें।
इन निम्बार्कीय दीक्षा की दो सर्वोत्तम वाेिषताएं है। पहला स्वराज्यभिषेक, दूसरा समर्पण वाक्य का महत्वपूर्ण संकल्प। इन्हीं दो वाेिषताओं के द्वारा श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय की उपासना सम्बन्धी भावना जानी जा सकती है। इसमें श्रीव्रजसीमन्तिनियों जैसा सर्वात्मभाव से श्रीकृष्णाराधन करने का विधान है। यह रहस्यमीमांसा का संकेत है। सम्प्रदाय के समस्त रसग्रथों की व्याख्या करते समय इन उदात्त भावों का ध्यान रखना आवयक हैं संक्षेप में यही श्रीनिम्बार्कीय दीक्षा का स्वरूप है।
No comments:
Post a Comment